सहमा सहमा हर इक चेहरा मंज़र मंज़र खून में तर
शहर से जंगल ही अच्छा है चल चिड़िया तू अपने घर
तुम तो ख़त में लिख देती हो घर में जी घबराता है
तुम क्या जानो क्या होता है हाल हमारा सरहद पर
बेमोसम ही छा जाते हैं बादल तेरी यादों के
बेमोसम ही हो जाती है बारिश दिल की धरती पर
आ भी जा अब जाने वाले कुछ इन को भी चैन पड़े
कब से तेरा रस्ता देखें छत आँगन दीवार-ओ-दर
जिस की बातें अम्मा अब्बू अक्सर करते रहते हैं
सरहद पार नजाने कैसा वो होगा पुरखों का घर
5 टिप्पणियां:
खूबसूर शेर
क्या बात है. बहुत उम्दा शेर.
हर शेर दास्ताँ कहता हुआ सा जान पड़ता है
बहुत सुन्दर गजल पढ़वाई आपने
आपकी गजलें मुझे बहुत पसंद आती है
वीनस केसरी
भाई जतिन्दर ब्लाग जगत में देखकर बहुर खुशी हुई ग़ज़ल बहुत अच्छी है हमेशा की तरह बेहद खूबसूरत हालांकि हमारी मुलाकात या बातचीत नहीं है लेकिन पत्रिकाओं में आपको पढा है. अब यहां देखकर अच्छा लग रहा है. उम्मीद है मुलाकात आगे भी होगी.
जिंदगी से तो मैं मायूस था मगर
ग़ज़लों ने आपकी हमे जीना सिखा दिया
अमित शर्मा
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