दिल्ली सुखनवरों का है मरकज़ मगर मियां, उर्दू के कुछ चिराग़ तो पंजाब में भी हैं - जतिन्दर परवाज़

बुधवार, अगस्त 19, 2009

आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं

आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं

गुमसुम तन्हा क्यों बेठे हो सब पूछें
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं

सोचो ओर ज़रीया उस को पाने का
जंतर-मंतर   जादू-टोना ठीक नहीं

अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं

मुस्तकबिल के ख्वाबों की भी फ़िक्र करो
यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं

दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं

कब तक दिल पर बोझ उठायोगे 'परवाज़'
माज़ी के ज़ख्मों को ढोना ठीक नहीं

9 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

सावन में झूलों पर तनहा वक्त बिताना मुश्किल तो है
जतिन्दर जी इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए मेरी दिली दाद कबूल करें...सारे शेर ही खूब कहे हैं आपने और ये :
कुछ और सोच ज़रीया उस को पाने का
जंतर-मंत्र जादू-टोना ठीक नहीं
शेर तो जबरदस्त है...वाह...लिखते रहें...
नीरज

ओम आर्य ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना

अमिताभ मीत ने कहा…

बेहतरीन ग़ज़ल है जतिन्दर जी. बहुत बढ़िया शेर. शुक्रिया.

वीनस केसरी ने कहा…

जतिंदर साहब आपकी गजलें तो कमाल धमाल है
आपकी गजलों की मासूमियत और सादापन देख कर मैं हैरान हो जाता हूँ
आज की गजल भी खूब पसंद आई

वीनस केसरी

सदा ने कहा…

दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं

बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति, बधाई ।

sandhyagupta ने कहा…

Likhte rahiye.

बेनामी ने कहा…

wah wah

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

बिल्‍कुल सही लिखा है आपने
जख्‍मों को ढोना ठीक नहीं

ठीक नहीं है जख्‍मों को ढोना
ठीक नहीं है रोना धोना

आंखें भिगोना कुछ ठीक है क्‍योंकि
आंखें स्‍वस्‍थ रहती हैं
जब आते हैं आंसू।

वैसे गजल आपकी है धांसू।

sanjeev kuralia ने कहा…

सभी शेयर...दमदार हैं ....आपको नमन