आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं
गुमसुम तन्हा क्यों बेठे हो सब पूछें
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं
सोचो ओर ज़रीया उस को पाने का
जंतर-मंतर जादू-टोना ठीक नहीं
अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं
मुस्तकबिल के ख्वाबों की भी फ़िक्र करो
यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं
दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं
कब तक दिल पर बोझ उठायोगे 'परवाज़'
माज़ी के ज़ख्मों को ढोना ठीक नहीं
9 टिप्पणियां:
सावन में झूलों पर तनहा वक्त बिताना मुश्किल तो है
जतिन्दर जी इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए मेरी दिली दाद कबूल करें...सारे शेर ही खूब कहे हैं आपने और ये :
कुछ और सोच ज़रीया उस को पाने का
जंतर-मंत्र जादू-टोना ठीक नहीं
शेर तो जबरदस्त है...वाह...लिखते रहें...
नीरज
बहुत ही सुन्दर रचना
बेहतरीन ग़ज़ल है जतिन्दर जी. बहुत बढ़िया शेर. शुक्रिया.
जतिंदर साहब आपकी गजलें तो कमाल धमाल है
आपकी गजलों की मासूमियत और सादापन देख कर मैं हैरान हो जाता हूँ
आज की गजल भी खूब पसंद आई
वीनस केसरी
दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं
बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई ।
Likhte rahiye.
wah wah
बिल्कुल सही लिखा है आपने
जख्मों को ढोना ठीक नहीं
ठीक नहीं है जख्मों को ढोना
ठीक नहीं है रोना धोना
आंखें भिगोना कुछ ठीक है क्योंकि
आंखें स्वस्थ रहती हैं
जब आते हैं आंसू।
वैसे गजल आपकी है धांसू।
सभी शेयर...दमदार हैं ....आपको नमन
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